देश में राजनीतिक विरोध का ऐसा माहौल पहले कभी नहीं देखा गया है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता के बीच अपनी राजनीतिक लड़ाई हारे हुए समस्त विपक्षी दल अब भाजपा और केंद्र सरकार को घेरने के लिए संवैधानिक संस्थाओं को भी निशाना बनाने में संकोच नहीं कर रहे हैं। जज बीएच लोया की कथित संदिग्ध मौत के मामले में जाँच की माँग को जब सर्वोच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया, तो कांग्रेस सहित विपक्षी दलों एवं उनके समर्थक कथित बुद्धिजीवियों ने जिस प्रकार न्यायपालिका पर अविश्वास जताया है, वह घोर आश्चर्यजनक तो है ही, निंदनीय भी है। कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी से लेकर अन्य प्रमख नेताओं ने न्यायपालिका को कठघरे में खड़ा करने का प्रयत्न किया है। सर्वोच्च न्यायालय ने स्वयं यह माना है कि इस प्रकरण के माध्यम से न्यायपालिका की विश्वसनीयता पर हमला बोला गया है। सर्वोच्च न्यायालय का यह कथन कांग्रेस नेताओं के वक्तव्यों ने सही साबित कर दिया कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी ने तो यह कह कर एक तरह से सर्वोच्च न्यायालय की अवमानना ही की है कि अमित शाह का सच देश की जनता जानती । उनके इस कथन का स्पष्ट संदेश है कि उन्हें सर्वोच्च न्यायालय पर भरोसा नहीं है। यह पहली बार नहीं है, जब कांग्रेस ने सबसे विश्वसनीय संवैधानिक संस्था न्यायपालिका% पर अविश्वास जताया है, उसे कठघरे में खड़ा किया । महात्मा गांधी की हत्या से लेकर हिंदू आतंकवाद और जज लोया के प्रकरण में कांग्रेस का व्यवहार न्यायपालिका की विश्वसनीयता को चोट पहुंचाने का रहा है। हाल ही में जब एनआईए की अदालत ने मक्का मस्जिद बम धमाके के मामले में असीमानंद सहित सभी आरोपियों को बरी किया, तब भी कांग्रेस के नेताओं के बयान न्यापालिका की विश्वसनीयता और स्वतंत्रता को धक्का पहंचाने वाले थे। दरअसल, कांग्रेस के इस व्यवहार के लिए उनकी नीयत जिम्मेदार है। उसे सच में यकीन नहीं है। जनता के बीच में लोकतांत्रिक लडाई हार रही कांग्रेस अब अपनी राजनीति न्यायपालिका के माध्यम से करना चाहती है। इसलिए जब उसे न्यायालय में भी मुंह की खानी पडती है, तो न्यायालय के बाहर कांग्रेस के नेता अपनी भडास निकालते हैं। सोहराबुद्दीन एनकाउंटर प्रकरण से जुडे जज बीएच लोया की कथित संदिग्ध मौत के मामले में जाँच की माँग को ठकराते हए सर्वोच्च न्यायालय ने उचित ही कहा- %देखने में आ रहा है कि बिजनेस और राजनीतिक हित साधने के लिए सर्वोच्च न्यायालय में जनहित याचिकाएं दाखिल की जा रहीं हैं। ऐसी जनहित याचिकाओं पर विचार करने में न्यायपालिका का काफी वक्त बर्बाद होता है, जिससे दूसरे मामलों में न्याय देने में देरी होती है। जिन मुद्दों को लेकर बाजार या चुनाव में लडाई करनी चाहिए, उन मद्दों को लेकर सप्रीम कोर्ट को अखाडा नहीं बनाना चाहिए। प्रत्येक अवसर पर भाजपा, आरएसएस और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के विरुद्ध खडे रहने वाले वकील इंदिरा जयसिंह, दुष्यंत दवे और प्रशांत भूषण को फटकार लगाते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा- %आप लोगों ने इस केस के बहाने न्यायपालिका पर सीधा हमला करना शुरू कर दिया। यह कहकर कि नागपुर गेस्ट हाउस में जज लोया के साथ ठहरने वाले चार न्यायिक अधिकारियों की बात पर भरोसा न किया जाए, जिन्होंने हार्ट अटैक से मौत की बात कही।% अपनी राजनीतिक जमीन को बचाने के लिए कांग्रेस ही नहीं, बल्कि कम्युनिस्ट लेखक एवं बुद्धिजीवी भी संवैधानिक संस्थाओं को कठघरे में खड़ा करने में सबसे आगे खड़े रहते हैं। कहना होगा कि कई मौकों पर कांग्रेस की दिशा भी कम्युनिस्ट ही तय कर रहे हैं, चाहे वह चुनाव आयोग का मामला हो या न्यायपालिका का। सर्वोच्च न्यायालय ने याचिकाकर्ताओं और उक्त वकीलों के व्यवहार पर गहरी निराशा व्यक्त की है। न्यायालय का कहना था कि याचिकाकर्ताओं और उनके वकीलों को न्यायपालिका की गरिमा का ख्याल रखना चाहिए था, लेकिन इन लोगों ने उसको तार-तार कर दिया। कम्युनिस्ट भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर हमले करने के लिए मुद्दों की ताक में न केवल बैठे रहते हैं, अपितु खोज और खोद कर भी लाते हैं। जज लोया का प्रकरण भी ऐसा ही उदाहरण है। चूंकि जज लोया सोहराबद्दीन शेख एनकांउटर मामले की सुनवाई कर रहे थे, इस प्रकरण में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह का नाम भी शामिल है, इसलिए कम्युनिस्ट और कांग्रेस नेता इस मुद्दे पर राजनीतिक रोटियां सेंकने का प्रयास कर रहे थे। लेकिन, हुआ क्या, उनके ही हाथ जल गए।
न्याय पालिका की राजनीतिक और वैचारिक